श्री गणेशाय नम:
अथ् इन्द्रजाल कथ्यते।
त्रि विंशति कनक विजानि धोउ शेन्द्र यवस्त था।।
गो दन्तन रदन्तश्च कृत्वा शुके रा लोठ येत।।१।।
ललाटे तिलकं कुध्र्या
ॐ ऐं परं क्षोभयं भगवती गंभीरेक्ष स्वाहा
परसगा की जड़ पुष्प नक्षत्र में लीजे उड़द तीली जे
जब की जड़ लीजे पुनः कुवारी कन्या के का तेस् त्रसो द क्षिणा भुज बंधन करें तो सर्वत्र पुज्यमान होय
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